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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2801
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- 'वेदाङ्ग' पर एक निबन्ध लिखिए।

अथवा
वेदाङ्ग में शिक्षा का स्थान बताइए।

उत्तर -

शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष एवं निरुक्त इन छः शास्त्रों को वेदांग कहा गया है। जिस प्रकार अंगहीन शरीर असम्भव है उसी प्रकार इन छः अंगों के पठन के अभाव में वेदों का अध्ययन असम्भव है। वेदों के शुद्ध पाठ अर्थज्ञान, यज्ञों में मन्त्रों की उपयोगिता, यज्ञ के लिए उचित समय का ज्ञान तथा वेद निर्माण की सही प्रक्रिया का ज्ञान वेदांगों के अभाव में सम्भव नहीं है। पाणिनि शिक्षा में वर्णित है कि ज्योतिष वेदों के लिए आँख है, निरुक्त कान है, शिक्षा घ्राण है, व्याकरण मुख है, कल्प हाथ तथा छन्द पाँव है। इस प्रकार जैसे - आँख, कान, नाक, मुख, हाथ तथा पाँव से शरीर की पूर्णता रहती है उसी प्रकार इन षड्वेदांगों के अध्ययन में से वेदाध्ययन. में परिपूर्णता आती है। वेदागों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित हैं-

(१) शिक्षा - तैत्तिरीय उपनिषद् जिसे शिक्षोपनिषद् भी कहते हैं, में शिक्षा का सबसे पहले उल्लेख मिलता है। शिक्षा के छः अंग वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम तथा सन्तान हैं। शिक्षा को पाणिनीय शिक्षा में वेद पुरुष की नासिका कहा गया है। शिक्षा का तात्पर्य है - वर्णोचारण की शिक्षा देना। सायणाचार्य ने अपनी ऋग्वेद भाष्य भूमिका में कहा है कि जिसमें स्वर, वर्ण आदि के उच्चारण की शिक्षा दी जाती है, वह शिक्षा वेदांग हैं- "स्वरर्णाद्युच्चारणप्रकारो यत्र शिक्ष्यते सा शिक्षा। शिक्षा का उद्देश्य है- वर्णोच्चारण की शिक्षा देना किस वर्ग का किस स्थान और प्रत्यय से उच्चारण होना चाहिए, स्वर योजना कैसे की जाती है, इत्यादि विषयों की जानकारी देना। उदान्त, अनुदात्त और स्वरित्र इन स्वरों का ही उच्चारण न होने पर भयंकर अनर्थ हो सकता है-

"मन्त्रोहीनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह। स वाग्वजो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् ॥'

स्वरदोष से उत्पन्न अनर्थ का ज्ञान इस आख्यायिका से हो सकता है। शुक्राचार्य वृत्तासुर को इन्द्र के नाश के लिए यज्ञ करा रहे थे। उन्होंने मन्त्र पढ़ा- 'इन्द्र-शत्रुवधस्य स्वाहा। उनका मतलब था हे ! इन्द्र के नाशक (शत्रु) तुम उत्पन्न हो बढ़ो। ऐसी दशा में तत्पुरुष समास होता, किन्तु भ्रान्तिवश उन्होंने पूर्वपद स्वर रख दिया जो बहब्रीहि समास में होता है। फलस्वरूप अर्थ हुआ इन्द्र शत्रुनाशक है जिसके, इस तरह वृत्त ही मारा गया।

"व्याघ्री पथा हरेद्धत्यसं द्रष्ट्राभ्यां न च पीड्येत्। भीता पतनभेदाभ्यां तद्वद्वर्णान्प्रयोजयेत् ॥'

शिक्षा का विशेष वर्णन प्रातिशाख्य ग्रन्थों में है। वर्णों के उच्चारण में पाणिनीय शिक्षा कहती है कि जिस प्रकार बिल्ली अपने बच्चों को दांत से पकड़ती है, न तो दाँत ही गड़ते हैं और न गिरने का डर है, सन्तुलन से वैसे ही अक्षरों का उच्चारण करना चाहिए जैसाकि उपर्युक्त श्लोक में कहा गया। प्रातिशाख्यों के अतिरिक्त पाणिनीय शिक्षा आदि कुछ छोटे आकार के ग्रन्थ भी हैं जिनकी संख्या ३४ है। तैत्तिरीय उपनिषद में शिक्षा के छः उपागों का वर्णन है - वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम और सन्तान। यहाँ वर्ण का अभिप्राय है अक्षर, वेद तत्व का ज्ञान करने के लिए वर्णमाला का ज्ञान आवश्यक होता है। स्वर पद से उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित ग्रहण किया जाता है। जिस स्वर अथवा व्यंजन के उच्चारण में जितना समय लगता है, उसे मात्रा कहते हैं। वह मात्रा ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत भेद से तीन प्रकार की होती है। बल से कण्ठ आदि स्थानों तथा अभ्यान्तर बाह्य प्रयत्नों का बोध होता है। साम का अर्थ है दोषरहित वर्णों का माधुर्य आदि गुणों से युक्त उच्चारण।

सन्तान का अर्थ है - संहिता। सामान्य रूप से शिक्षा का अर्थ होता है- वैदिक मन्त्रों की उच्चारण विधि को बतलाने वाला ग्रन्थ। शिक्षा तथा प्रातिशाख्य के परस्पर सम्बन्धों के विषय में विद्वानों में मतभेद है। शिक्षा साहित्य विशाल है। शिक्षा वेदांग एक प्रकार से आधुनिक ध्वनि विज्ञान के समान है।

(२) कल्प - ब्राह्मण काल में यज्ञों का पर्याप्त प्रचार हुआ, अतः उनका पूर्ण परिचय देने के लिए तत्सम्बन्धित ग्रन्थों की आवश्यकता होने लगी। उसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए जिन ग्रन्थों की रचना की गयी उन्हें कल्प या कल्पसूत्र कहते हैं- "कल्पो वेदविहितानां कर्मणानुपूर्व्येण कल्पनाशास्त्रम्।' ये कल्पसूत्र भी दो प्रकार के हैं - एक श्रौतसूत्र और दूसरा स्मार्तसूत्र। वेदोक्त योगविधि को बतलाने वाले सूत्रों को श्रौतसूत्र कहते हैं। स्मार्तसूत्र भी दो प्रकार के होते हैं एक गृह्यसूत्र तथा दूसरा धर्मसूत्र। मुख्य रूप से कल्प चार प्रकार के कहे गये हैं-

(१) श्रौतसूत्र (२) गृह्यसूत्र (३) धर्मसूत्र (४) शुल्वसूत्र।

गृह्यसूत्रों में उन अनुष्ठान, आचार तथा यागों का वर्णन है, जिनका सम्पादन ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य को अवश्य करना चाहिए। सोलह संस्कारों का विशिष्ट वर्णन भी इन गृह्यसूत्रों में किया गया है। धर्मसूत्रों में धार्मिक नियमों, राजा प्रजा के कर्तव्यों, चार वर्ण और चार आश्रमों का वर्णन है। शुल्वसूत्रों में वेदों के निर्माण विधि का विशेष रूप से वर्णन मिलता है। शुल्व का अर्थ होता है 'नापने की विधि। यह शुल्वसूत्र भारतीय ज्यामितिशास्त्र का प्रवर्तक माना जाता है। वेद-क्रम से सम्बन्धित सूत्र ऋग्वैदिक कल्पसूत्र, यजुर्वेदीय कल्पसूत्र, सामवेदीय कल्पसूत्र एवं अथर्ववेदी कल्पसूत्र हैं। ऋग्वेद के कल्पसूत्र आश्वालायन तथा शाङ्खायन हैं। इन दोनों कल्पसूत्रों में श्रौतसूत्र तथा गृह्यसूत्र सम्मिलित हैं। शुक्ल यजुर्वेद के कल्पसूत्र कात्यायन श्रौसूत्र, पारस्कर गृह्यसूत्र तथा कात्यायन शुल्वसूत्र हैं। सामवेदीय कल्पसूत्र आर्षेय, लाट्यायन, ब्राह्मायण और जैमिनीय श्रौतसूत्र, ब्राह्मणायण, गोभिल, खादिर और जैमिनीय गृह्यसूत्र गौतमयर्मसूत्र हैं।

(३) व्याकरण - वेदों का रक्षक होने से तथा वेदों के अर्थ का ज्ञान कराने में समर्थ होने से वेद का यह तीसरा अंग व्याकरण सभी अंगों में श्रेष्ठ है। इसकी निरुक्ति इस प्रकार दी गयी है- 'व्याक्रियन्ते शब्दा अनेन इति व्याकरणम्' अर्थात् पदों की मीमांसा करने वाला शास्त्र। इसे वेद भगवान का मुख कहा गया है 'मुखम् व्याकरणम् स्मृतम'। भाषा की शुद्धि के लिए व्याकरणशास्त्र की अत्यन्त आवश्यकता होती है। व्याकरण ज्ञान से शून्य पुरुष शुद्ध शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकता। महाभाष्यकार पतंजलि ने वेद की रक्षा के लिए व्याकरण का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक बतलाया है। 'रक्षार्थवेदाध्ययनमध्येयं व्याकरणम्, लोपागमवर्णविकारज्ञो हि पुरुषः सम्यग् वेदान् परिपालयिस्यति। इन्द्र, चन्द्र, कशकृत्स्न, आपिशलि, शाकटायन, पाणिनी, अमर, जैनेन्द्र ये प्राचीन व्याकरणकर्ता हैं। इन नामों में अनेक मतभेद भी पाये जातें हैं। आज इनमें पाणिनि के व्याकरण की ही अधिक मान्यता है। पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में पूर्ववर्ती वैयाकरणों के मतों को भी यथावसर उद्धृत किया है। यास्क ने अपने निरुक्त में भी शब्द की नित्यता, प्रतिपादकों का व्युत्पन्न होना आदि व्याकरण के कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है।

(४) छन्द - सभी वेद छन्दोबद्ध हैं। उनका सही से उच्चारण हो सके इसलिए छन्दों का ज्ञान होना परम आवश्यक है। महर्षि कात्यायन ने सर्वानुक्रमणी १/१ में लिखा है जो व्यक्ति, ऋषि, छन्द, देवता, ब्राह्मण की जानकारी किये बिना मन्त्र द्वारा यज्ञ कराता है, अथवा उसको पढ़ाता है, उसका वह कर्म सफल नहीं होता, अपितु वह पाप का भागी होता है। छन्दशास्त्र की उत्पत्ति भी वैदिक युग में हो गयी थी। ये छन्द भी वैदिक तथा लौकिक भेद से दो प्रकार के हैं। लौकिक छन्दों की सृष्टि बाद में हुई है। दुर्गाचार्य ने लिखा है 'नाच्छन्दसि वागुच्चरति। बिना छन्द के वाणी की प्रवृत्ति ही नहीं होती है। भरतमुनि भी छन्दरहित शब्द को स्वीकार करते हैं। छन्दशास्त्र को वेद पुरुष का छन्द स्थानीय माना गया है। यथा 'छन्दः पादौतु वेदस्य'। पैरों के बिना किसी का उत्थान नहीं हो पाता, अतः सम्पूर्ण शरीर की शोभा चरण ही होते हैं। इसके बिना मानव को पंगु कहा जाता है, वास्तव में छन्दों के ज्ञान के बिना वेद का ज्ञान भी पंगु होता है। शांखायन श्रौतसूत्र, ऋग्वेद प्रातिशाख्य, सामवेद के कतिपय सूत्र ग्रन्थों, पिंगल छन्दः सूत्र तथा कात्यायन कृत अनुक्रमणी में भी वैदिक छन्दों का परिचय मिलता है।

महर्षि कात्यायन ने वैदिक छन्दों की निम्नलिखित संख्या निर्धारित की है- गायत्री - २४६७, उष्णिक् - ३४१, अनुष्टुप - ८६५, पंक्ति - ३१२,  जगती- १३५७, त्रिष्टुप -४२५३, वृहती - १८१।

इसके अतिरिक्त अति जगती, शक्वरी, अतिशक्वरी, छन्दोबद्ध मन्त्र भी देखे जाते हैं। छन्दों विषयक आधुनिक ग्रन्थों में अर्नाल्ड-कृत वैदिक मीटर तथा युधिष्ठिर मीमांसक प्रणीत "वैदिक छन्दोमीमांसा' भी उल्लेखनीय है। वैदिक छन्दों से ही कालान्तर में लौकिक छन्दों का विकास हुआ।

(५) ज्योतिष - ज्योतिष के विविध प्रकार बताये गये हैं तथा उनके लक्ष्य भी भिन्न-भिन्न हैं। वैदिक यज्ञों के सम्पादन करने का शुभ मुहुर्त निर्धारित करने के लिए वेदांग ज्योतिष की आवश्यकता मानी जाती है। 'वेदांगज्योतिष, में उल्लेख है कि इस शास्त्र से यज्ञों के काल विधान का ज्ञान होता है

"वेदाहि यथार्थमभिप्रवत्ताः कालानि पूर्वा विहिताश्च यज्ञाः। तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वेद सं वेद यज्ञम् ॥'

ज्योतिषशास्त्र को वेद पुरुष का चक्षुः स्थानीय माना गया है। नेत्रहीन पुरुष की लोक में जो स्थिति होती है, यह सर्वविदित है, ठीक वही स्थिति नेत्ररहित शास्त्र की भी होती है। दिशा-निर्देश की आवश्यकता सबको सदा होती है। अतएव इस त्रिस्कन्ध ज्योतिषशास्त्र को 'वेद का निर्मल चक्षु' कहा गया है। यहाँ चक्षु का निर्मल विशेषण कितना सार्थक प्रतीत हो रहा है, इसके सम्बन्ध में भास्कराचार्य ने अपने सिद्धान्त शिरोमणि नामक ग्रन्थ में लिखा है- 'वेद यज्ञकर्मों के प्रवर्तक हैं, यज्ञों की प्रवृत्ति कालानुरोध से की जाती है। इस ज्योतिषशास्त्र से काल का सम्यक् बोध होता है। इसलिए इसे वेदाङ्ग स्वीकार किया गया है। वेदांग ज्योतिष के दो ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं इनमें से एक ऋग्वेद से सम्बन्धित और दूसरा यजुर्वेद से सम्बन्धित है। वेदांग ज्योतिष के कर्ता का नाम लगध बतलाया गया है जिसके ग्रन्थ का नाम आर्चज्योतिष है, इसमें सत्ताइस नक्षत्रों की गणना दी गयी है। आचार्य लगध के बाद ज्योतिष ग्रन्थकारों में वराहमिहिर पारशर, गर्ग, आदिभट्ट, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य तथा कमलाकर आदि विद्वानों ने पर्याप्त यश अर्जति किया। अन्त में वेदांग ज्योतिष का महत्व है।

यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा। तद्ववेदांग शास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम् ॥

अनुशीलन से प्राप्त तथ्यों से पता चलता है कि वैदिक ज्योतिष में सौर और चन्द्रमासों की गणना होती थी। यज्ञिय कार्यों के लिए चन्द्रमास ही मुख्य माना जाता था।

(६) निरुक्त - जिस शास्त्र की सहायता से शब्दों का स्पष्टीकरण होकर उनके अर्थ का ज्ञान हो उसे निरुक्त कहते हैं। निरुक्त निघण्टु की महत्वपूर्ण टीका है। निघण्टु में वेद के कठिन शब्दों का संकलन है। यास्क के पूर्ववर्ती १६ निरुक्तकारों का वर्णन मिलता है। निघण्टु में पाँच अध्याय हैं। पहले तीन अध्यायों में पर्यायवाची शब्द संकलित हैं जैसे पृथ्वीवाचक २१ शब्द मेघवाचक ३० शब्द, वाणीवाचक ५७ शब्द, जलवाचक १०० शब्द हैं। इन्हें नैघण्टुक काण्ड कहा जाता है। निघण्टु के चौथे अध्याय मंध कठिन और अस्पष्ट वैदिक शब्द दिये हैं। इन शब्दों की व्याख्या यास्क ने निरुक्त के ४-६ अध्यायों में की है। इसे नैगमकाण्ड अथवा एकपदिक कहते हैं। निघण्टु के पंचम अध्याय में देवतावाचक शब्द हैं। इनकी व्याख्या निरुक्त में ७-१२ अध्यायों में है। इसे दैवतकाण्ड कहते हैं। इससे पृथ्वी, अन्तरिक्ष और धुलोक के वेदों के विषय में विवेचन है। इनका एक परिशिष्ट भी है जो निरुक्त का १३बाँ अध्याय माना जाता है। मैक्समूलर ने निरुक्त के विषय में अपना अभिमत इस प्रकार व्यक्त किया है मुझे सन्देह है कि इस समय की तुलनात्मक भाषा - विज्ञान ने शब्दों की उत्पत्ति पर जो भी नया प्रकाश डाला है उसके साथ भी इस तरह के 'शब्दों की व्युत्पत्ति के यास्क की अपेक्षा अधिक सन्तोषप्रद रूप से हल किये जायेंगे। निरुक्त की मान्यता निर्वचनशास्त्र, भाषा विज्ञान और अर्थ-विज्ञान के सबसे प्राचीन प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में हैं। निरुक्त के दो खण्डों में स्वर, आख्यात्, निपात, शब्द, ऋषि, छन्द, देवता तथा मन्त्रार्थ विषयक आठ अनुक्रमणियाँ संकलित हैं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- वेद के ब्राह्मणों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  2. प्रश्न- ऋग्वेद के वर्ण्य विषय का विवेचन कीजिए।
  3. प्रश्न- किसी एक उपनिषद का सारांश लिखिए।
  4. प्रश्न- ब्राह्मण साहित्य का परिचय देते हुए, ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य विषय का विवेचन कीजिए।
  5. प्रश्न- 'वेदाङ्ग' पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण पर एक निबन्ध लिखिए।
  7. प्रश्न- उपनिषद् से क्या अभिप्राय है? प्रमुख उपनिषदों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
  8. प्रश्न- संहिता पर प्रकाश डालिए।
  9. प्रश्न- वेद से क्या अभिप्राय है? विवेचन कीजिए।
  10. प्रश्न- उपनिषदों के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  11. प्रश्न- ऋक् के अर्थ को बताते हुए ऋक्वेद का विभाजन कीजिए।
  12. प्रश्न- ऋग्वेद का महत्व समझाइए।
  13. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण के आधार पर 'वाङ्मनस् आख्यान् का महत्व प्रतिपादित कीजिए।
  14. प्रश्न- उपनिषद् का अर्थ बताते हुए उसका दार्शनिक विवेचन कीजिए।
  15. प्रश्न- आरण्यक ग्रन्थों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- ब्राह्मण-ग्रन्थ का अति संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- आरण्यक का सामान्य परिचय दीजिए।
  18. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।
  19. प्रश्न- देवता पर विस्तृत प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तों में से किसी एक सूक्त के देवता, ऋषि एवं स्वरूप बताइए- (क) विश्वेदेवा सूक्त, (ग) इन्द्र सूक्त, (ख) विष्णु सूक्त, (घ) हिरण्यगर्भ सूक्त।
  21. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में स्वीकृत परमसत्ता के महत्व को स्थापित कीजिए
  22. प्रश्न- पुरुष सूक्त और हिरण्यगर्भ सूक्त के दार्शनिक तत्व की तुलना कीजिए।
  23. प्रश्न- वैदिक पदों का वर्णन कीजिए।
  24. प्रश्न- 'वाक् सूक्त शिवसंकल्प सूक्त' पृथ्वीसूक्त एवं हिरण्य गर्भ सूक्त की 'तात्त्विक' विवेचना कीजिए।
  25. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
  26. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रयुक्त "कस्मै देवाय हविषा विधेम से क्या तात्पर्य है?
  27. प्रश्न- वाक् सूक्त का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
  28. प्रश्न- वाक् सूक्त अथवा पृथ्वी सूक्त का प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- वाक् सूक्त में वर्णित् वाक् के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
  30. प्रश्न- वाक् सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  31. प्रश्न- पुरुष सूक्त में किसका वर्णन है?
  32. प्रश्न- वाक्सूक्त के आधार पर वाक् देवी का स्वरूप निर्धारित करते हुए उसकी महत्ता का प्रतिपादन कीजिए।
  33. प्रश्न- पुरुष सूक्त का वर्ण्य विषय लिखिए।
  34. प्रश्न- पुरुष सूक्त का ऋषि और देवता का नाम लिखिए।
  35. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। शिवसंकल्प सूक्त
  36. प्रश्न- 'शिवसंकल्प सूक्त' किस वेद से संकलित हैं।
  37. प्रश्न- मन की शक्ति का निरूपण 'शिवसंकल्प सूक्त' के आलोक में कीजिए।
  38. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त में पठित मन्त्रों की संख्या बताकर देवता का भी नाम बताइए।
  39. प्रश्न- निम्नलिखित मन्त्र में देवता तथा छन्द लिखिए।
  40. प्रश्न- यजुर्वेद में कितने अध्याय हैं?
  41. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त के देवता तथा ऋषि लिखिए।
  42. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। पृथ्वी सूक्त, विष्णु सूक्त एवं सामंनस्य सूक्त
  43. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त में वर्णित पृथ्वी की उपकारिणी एवं दानशीला प्रवृत्ति का वर्णन कीजिए।
  44. प्रश्न- पृथ्वी की उत्पत्ति एवं उसके प्राकृतिक रूप का वर्णन पृथ्वी सूक्त के आधार पर कीजिए।
  45. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  46. प्रश्न- विष्णु के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  47. प्रश्न- विष्णु सूक्त का सार लिखिये।
  48. प्रश्न- सामनस्यम् पर टिप्पणी लिखिए।
  49. प्रश्न- सामनस्य सूक्त पर प्रकाश डालिए।
  50. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। ईशावास्योपनिषद्
  51. प्रश्न- ईश उपनिषद् का सिद्धान्त बताते हुए इसका मूल्यांकन कीजिए।
  52. प्रश्न- 'ईशावास्योपनिषद्' के अनुसार सम्भूति और विनाश का अन्तर स्पष्ट कीजिए तथा विद्या अविद्या का परिचय दीजिए।
  53. प्रश्न- वैदिक वाङ्मय में उपनिषदों का महत्व वर्णित कीजिए।
  54. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
  55. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के अनुसार सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करने का मार्ग क्या है।
  56. प्रश्न- असुरों के प्रसिद्ध लोकों के विषय में प्रकाश डालिए।
  57. प्रश्न- परमेश्वर के विषय में ईशावास्योपनिषद् का क्या मत है?
  58. प्रश्न- किस प्रकार का व्यक्ति किसी से घृणा नहीं करता? .
  59. प्रश्न- ईश्वर के ज्ञाता व्यक्ति की स्थिति बतलाइए।
  60. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या में क्या अन्तर है?
  61. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या (ज्ञान एवं कर्म) को समझने का परिणाम क्या है?
  62. प्रश्न- सम्भूति एवं असम्भूति क्या है? इसका परिणाम बताइए।
  63. प्रश्न- साधक परमेश्वर से उसकी प्राप्ति के लिए क्या प्रार्थना करता है?
  64. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् का वर्ण्य विषय क्या है?
  65. प्रश्न- भारतीय दर्शन का अर्थ बताइये व भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषतायें बताइये।
  66. प्रश्न- भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है तथा भारत के कुछ प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं? भारतीय दर्शन का अर्थ एवं सामान्य विशेषतायें बताइये।
  67. प्रश्न- भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  68. प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
  69. प्रश्न- चार्वाक दर्शन किसे कहते हैं? चार्वाक दर्शन में प्रमाण पर विचार दीजिए।
  70. प्रश्न- जैन दर्शन का नया विचार प्रस्तुत कीजिए तथा जैन स्याद्वाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  71. प्रश्न- बौद्ध दर्शन से क्या अभिप्राय है? बौद्ध धर्म के साहित्य तथा प्रधान शाखाओं के विषय में बताइये तथा बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य क्या हैं?
  72. प्रश्न- चार्वाक दर्शन का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
  73. प्रश्न- जैन दर्शन का सामान्य स्वरूप बताइए।
  74. प्रश्न- क्या बौद्धदर्शन निराशावादी है?
  75. प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
  76. प्रश्न- विविध दर्शनों के अनुसार सृष्टि के विषय पर प्रकाश डालिए।
  77. प्रश्न- तर्क-प्रधान न्याय दर्शन का विवेचन कीजिए।
  78. प्रश्न- योग दर्शन से क्या अभिप्राय है? पतंजलि ने योग को कितने प्रकार बताये हैं?
  79. प्रश्न- योग दर्शन की व्याख्या कीजिए।
  80. प्रश्न- मीमांसा का क्या अर्थ है? जैमिनी सूत्र क्या है तथा ज्ञान का स्वरूप और उसको प्राप्त करने के साधन बताइए।
  81. प्रश्न- सांख्य दर्शन में ईश्वर पर प्रकाश डालिए।
  82. प्रश्न- षड्दर्शन के नामोल्लेखपूर्वक किसी एक दर्शन का लघु परिचय दीजिए।
  83. प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
  84. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। श्रीमद्भगवतगीता : द्वितीय अध्याय
  85. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के अनुसार आत्मा का स्वरूप निर्धारित कीजिए।
  86. प्रश्न- 'श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के आधार पर कर्म का क्या सिद्धान्त बताया गया है?
  87. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए?
  88. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का सारांश लिखिए।
  89. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता को कितने अध्यायों में बाँटा गया है? इसके नाम लिखिए।
  90. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास का परिचय दीजिए।
  91. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय लिखिए।
  92. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( आरम्भ से प्रत्यक्ष खण्ड)
  93. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं पदार्थोद्देश निरूपण कीजिए।
  94. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं द्रव्य निरूपण कीजिए।
  95. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं गुण निरूपण कीजिए।
  96. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं प्रत्यक्ष प्रमाण निरूपण कीजिए।
  97. प्रश्न- अन्नम्भट्ट कृत तर्कसंग्रह का सामान्य परिचय दीजिए।
  98. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन एवं उसकी परम्परा का विवेचन कीजिए।
  99. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के पदार्थों का विवेचन कीजिए।
  100. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण को समझाइये।
  101. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के आधार पर 'गुणों' का स्वरूप प्रस्तुत कीजिए।
  102. प्रश्न- न्याय तथा वैशेषिक की सम्मिलित परम्परा का वर्णन कीजिए।
  103. प्रश्न- न्याय-वैशेषिक के प्रकरण ग्रन्थ का विवेचन कीजिए॥
  104. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान प्रमाण की विवेचना कीजिए।
  105. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( अनुमान से समाप्ति पर्यन्त )
  106. प्रश्न- 'तर्कसंग्रह ' अन्नंभट्ट के अनुसार अनुमान प्रमाण की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  107. प्रश्न- तर्कसंग्रह के अनुसार उपमान प्रमाण क्या है?
  108. प्रश्न- शब्द प्रमाण को आचार्य अन्नम्भट्ट ने किस प्रकार परिभाषित किया है? विस्तृत रूप से समझाइये।

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